बुधवार, 10 अप्रैल 2013

'काम'

प्रतीक चित्र
रघुनी काम के लिए कोलकाता शहर के एक चैराहे पर सबेरे छः बजे से ही राजमिस्त्री एवं मजदूरों की कतार में बैठा था। काफी समय यूंही बैठे-बैठे कुछ सोचने लगा तो अचानक उसकी आंखों के सामने अतीत के कुछ पल चलचित्रा की तरह आने-जाने लगे।
उसे घर से भागे दो वर्ष गुजर गये थे। कोलकाता शहर में कदम रखते ही स्टेशन पर एक गिरहकट से पाला पड़ा और उसके प्राण जाते-जाते बचे थे। उस दिन महज दो-ढाई सौ रूपए उससे छीन लेने के चक्कर में कलकतिया गुंडे उसका खून कर देते। जैसे-तैसे माटी काटने का काम मिला। कई दिनों तक उसने काम किया। लेकिन जब मजदूरी की बात आयी तो ठेकेदार ने उसे उल्टा-सीधा समझाकर उसकी दो दिन की मजदूरी हड़प गया। बेचारा रघुनी मन मसोस कर रहा गया था।
कई माह तक उसने चूड़ा-चबेना फांक, फुटपाथ पर सोकर व्यतित किए थे। फिर उसने कई रात एक होटल के ढाबे में सोकर गुजारी थी। पहली रात तो उस ढाबे में उसका दम घुट गया था। उस रात मदोन्मत तीन वेश्याएं आकर उसके आस-पास ही सो गयी, जो रोज वहीं आकर सोती थी। बाद में तो जैसे आदत सी बन गयी, वेश्याएं आकर रघुनी के इर्द-गिर्द सो जाती थी और वह भडुए की भूमिका निभाने लगा।
वेश्याओं के इशारे पर ही एक रात उसने एक राही को लूटा और उसकी मरम्मत भी की थी। दिन मजे से बीत रहा था। कभी-कभी रात-रात भर शराब और सेक्स का दौर चलता रहता था फिर भी एकांत पाकर, उसका मन सिसकता था। इस शरीर की नश्वरता, आनंद की क्षणिकता पर तरस खाकर कल्याणकारी कार्यो की ओर भी उसने कुछ पग रखे और सोनागांछी के एक कोठे की जवान वेश्या लड़की को स्वीकार लिया।
लेकिन समाज सुधार का काम खाली पेट नही होता। गरीबी सब गुड़ गोबर कर देती है। आखिर वह लड़की एक दिन फिर से कोठे पर भाग गयी और वह चाहकर भी समाज सेवा नहीं कर सका। फिर घर भी रूपए भेजने है, बाल-बच्चों की चिन्ता। केवल अपना ही पेट नही भरना है। अपना पेट तो कुत्ता भी पाल लेता है। उसे बूढ़े कान्ट्रैक्टर की अट्ठाईस वर्षीया पत्नी की भी बात याद आ रही थी, जिसने रघुनी के हाथ में नोटों की गड्डियां रखते हुए, कहीं भाग चलने का प्रस्ताव रखा था।
उसने सुना था कि कलकत्ता की गलियों में रूपयों की वर्षा होती है। रघुनी के संजोए सपने ध्वस्त हो चूके थे। यहां आकर पता चला कि दूर के ढोल ही सुहावने होते है। घर की आधी रोटी ही भली थी। अचानक एक सेठ ने रघुनी का ध्यान भंग किया और एक मिस्त्री के साथ उसे लेकर अपने घर चला गया। सेठ के घर पहुंचकर रघुनी ने खैनी बनाई और मिस्त्री को एक चुटकी देकर खुद खाया फिर दोनों काम में जुट गए।
दोपहर एक बजे मिस्त्री ने आवाज लगायी, ‘‘सेठानी जी.... सेठानी जी....’’
मिस्त्री की आवाज पर कुछ देर में एक युवती किंतु थुलथुल शरीर वाली गोरी महिला छत से झांकते हुए बोली, ‘‘क्या बात है राज मिस्त्री?’’
‘‘हम लोग खाना खाने जा रहे हैं मालकिन....’’
‘‘ठीक है मैं अभी आयी....’’
सेठानी गेट बंदकर ऊपर जाने को हुई तो युवा रघुनी जैसे उनसे मौन-मूक आंखों की भाषा में पूछता सोच लगा, मुश्किल से दस दिनों का यहां काम होगा और क्या? फिर न जाने किस घाट लगंूगा। यदि ऐसे सेठ का घरेलू नौकर हो जाता, तो कितना अच्छा होता। आलीशान महल, जर्सी गाय की देखभाल के अलावा और कोई विशेष काम भी नहीं है। लगता है सेठ निःसंतान है। बच्चों का भी कोई शोर-शराबा नहीं है। बढि़या-बढि़या खाना मिलता। इधर न तो दिन चैन न रात।
रघुनी एक दो दिन में ही सेठानी से काफी घुल-मिल गया था। एक दिन खाना खाने जाने से पहले उसने सेठानी से पूछा, ‘‘मलकिनी.... क्या मैं दोपहर में यहीं ठहर सकता हूं..... खाना खाने बहुत दूर जाना पड़ता है। इस लिए मैं अपने साथ सत्तू ले आया हूं।’’
‘‘कोई बात नहीं, आराम से रहो.... ’’
प्रतीक चित्र
कुछ देर बाद मिस्त्री भोजन करने बाहर चला गया तब सेठानी बगीचे का गेट एवं भवन का मुख्य दरवाजा बंदकर ऊपर चली गयी। सेठ जी को गोदाम पर खाना भिजवाने के बाद स्वयं भोजन कर निश्चिन्त हो नीचे रघुनी को सत्तू सानते देखने लगी।
रघुनी मन भर सत्तू खाकर ठंड़ा पानी पीया फिर जोरदार ढकार लिया तो सेठानी खिलखिलाकर हस पड़ी। रघुनी मुस्कराकर उनकी ओर देखते हुए बोला, ‘‘हसती क्यों हैं मालकिन.... जब पेट भर नहीं खाऊंगा तो खटूंगा कैसे?’’
 कहकर वह अंगोछा बालू पर बिछाकर सोने लगा तो सेठानी बोली पड़ी, ‘‘ रघु.... बालू पर क्यों लेट रहे हो? ऊपर आकर चटाई पर आराम कर लो.... ’’
‘‘कोई बात नहीं मालकिन.... हम लोगों का तो बालू-माटी का काम ही है।’’
‘‘तो क्या हुआ, तुम ऊपर आ जाओ.... ’’
जब सेठानी कई बार कहती जिद कर बैठी तो वह ऊपर चला गया। चटाई पर लेटने के कुछ ही मिनटों बाद थका-मादा रघुनी अतीत की यादों के सागर में डूबता-उतरता झपकियां लेने लगा था।
इधर सेठानी बिल्कुल नई गुलाबी साड़ी पहनकर, सज-धज अपने कमरे से निकली और रघुनी के सिरहाने खड़ी बांस की सीढ़ी से ऊपर चढ़ने लगी। बिल्कुल ऊपर चढ़कर हसते हुए बोली, ‘‘रघु.... देख तो, मैं कैसी लग रही हूं?’’
रघुनी चैका और सेठानी को टकटकी लगाकर देखते हुए झट से जवाब दिया, ‘‘बहुत अच्छी.....नीचे आ जाइए मालकिन, आपके वजन से सीढ़ी लप रही है। कही टूट ने जाए।’’ कृत्रिम हसी बिखेरते हुए वह बोला।
‘‘लो आ गयी.... ’’ सीढ़ी से नीचे उतरकर रघुनी के सिर के पास बैठते हुए सेठानी ने पूछा, ‘‘अच्छा, यह बताओ, तेरी शादी हुई है या नही?’’
‘‘हो गई है.... तीन साल का एक लड़का भी है।’’
यहां कितने दिनों से हो?’’
‘‘करीब दो वर्षो से.....’’
‘‘बीवी की याद नहीं आती? कैसे इतने-इतने दिनों तक तुम लोग बाहर रह जाते हो?’’
‘‘याद आती है मालकिनी। मगर.... पेट के खातिर आदमी क्या-क्या नही करता। गांवों में रोजी-रोटी की गारंटी होती तो काहे को कीड़े-मकोडों की तरह जीने यहां आता? शहरों में झोपड़-पट्टियों की बाढ़ इन्हीं कारणों से हो रही है।’’
‘‘क्या रोना, रोने लगे जी..... ’’ कहती सेठानी उठकर अपने कमरे में गयी और वापस लौटकर तीन नम्बरी रघुनी को जबरन थमाती हुई बोली, ‘‘लो तीन सौ रूपए, कल अपने घर मनीआर्डर कर देना।’’
रघुनी सकपकाया-सा फटी निगाहों से सेठानी के सुन्दर चेहरे को देख ही रहा था कि सेठानी अपने फिरोजी होठों को चबाते हुए अधीर भाव से रघुनी के दायें हाथ को अपनी गोद में रखकर सहलाते हुए बोली, ‘‘तुम लोगों के बदन की कसावट इतनी अच्छी कैसे हो जाती है?’’
‘‘माटी-पानी और धूप में खटने वाले का शरीर है न.... आप लोगों की तरह मखमली सेज पर सोने वाला थोड़े हूं।’’
‘‘अच्छा तुम मेरा एक काम कर दोगे?’’ सेठानी अंगड़ाई लेकर हांफती हुई बोली, ‘‘बोलो करोगे न....
‘‘एक क्या? दो, तीन कर दूंगा.... बोलिए न क्या काम है?’’ रघुनी झट से बोला।
‘‘औरतों का क्या काम होता है?’’
‘‘काम कुछ भी हो सकता है। बाजार से कुछ सामान खरीदकर लाना या घर में ही कोई सामान इधर से उधर रखना आदि.... मैं नही समझ पा रहा हूं।’’ रघुनी सेठानी की कुभावनाओं को भांपता बोला।
‘‘नही-नही.... यह सब काम नही हैे।’’ सेठानी अपना आंचल एक तरफ गिराते हुए बोली।
 सेठानी का खुला आमंत्राण देख रघुनी भी कामग्नि से जलने लगा था। उसने सेठानी की कलाई थामी तो वह स्वयं ही कटे वृक्ष की तरह रघुनी की गोद में आ गिरी। फिर उसके हाथ सेठानी की नाजुक अंगों पर फिसलने लगा। सेठानी के तन-मन वासना की आग पहले से ही लगी थी। रघुनी का हाथ आग में घी का काम किया और सेठानी सब भूल अपना हाथ भी रघुनी के जिस्म पर फिसलाने लगी। कुछ देर तक दोनों एक दूसरे के जिश्म को नोंचते-खसोटते रहे। फिर रघुनी सेठानी को लिटाकर उन पर सवार होने के लिए उठा ही था कि खाना खाकर लौटे मिस्त्री ने दरवाजा खटखटाते हुए आवाज लगायी, ‘‘रघुनी..... रघुनी.... ’’
मिस्त्री की आवाज पर रघुनी उठकर दरवाजा खोलने नीचे जाते हुए सोचने लागा कि पेट की आग और वासना की आग मुझे भस्म ही कर देगी क्या.... बाप रे, कैसा ये फेरा है? आसमान से गिरा तो खजूर में आ के अंटका..... पहले रोड की दुष्ट कुल्टाओं से जलता-झुलसता रहा और आज......?
सोचते-सोचते रघुनी ने दरवाज खोल दिया। मिस्त्री अंदर आ गया फिर दोनों काम में जुट गए।

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