बुधवार, 17 अप्रैल 2013

रिश्तों की डोर


प्रतीक चित्र
रामू गांव के नाई का लड़का था। दो साल पहले उसकी मां आंधी में छत से गिरकर मर गई थी। अब घर की देखभाल उसकी बहन कमली करती थी। उसका ब्याह हो चुका था। गौना हो जाऐगा तो वह भी अपनी ससुराल चली जाएगी पर अभी तो घर का सारा बोझ उसी पर था। जजमानी में मां की जगह वही आती-जाती थी।
कमली जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी। उसका गोरा सालोना चेहरा, लचीला बदन देखकर लगता मानो वह किसी ऊचीं जाति की बेटी हो। वह लहंगा पहनती और रंग-बिरंगे दुपट्टे ओढ़ती थी। जब वह अंचल में हाथ में लिए, पैरों में बिछुए और कमर पर चांदी की करधनी पहनकर गांव की धूल भरी गलियों में नजर झुकाए धीरे-धीरे चलती तो मनचलों के दिल पर सांप लोटने लगता था।
इसी गांव के ठाकुर साहब को काई औलाद नही था। एक छोटा भाई था, वह भी किसी फौजदारी में मार दिया गया था। उसी के बेटी-बेटे को वह अपनी औलाद की तरह पाल-पोस रहे थे। भतीजी का अभी ब्याह नही हुआ था। भतीजा शेरसिंह पास के शहर में पढ़ रहा था। ठाकुर साहब कमली को बेटी की तरह मानते थे।
एक दिन कमली को घर ठाकुर साहब की नौकरानी ने आकर बताया, ‘‘कमली ठाकुराइनी अम्मा ने तुम्हारे बापू को अभी बुलाया है।’’
उस समय कमली बटलोई में दाल डालने जा रही थी। थाली हाथ में लिए हुए उसने बाहर आकर बताया, ‘‘बापू तो नगरा गए हैं। भैया भी ननिहाल गया हुआ है। ऐसा क्या काम है, जो अम्मां ने इसी वक्त बापू को बुलाया है। कहो तो मै हो आऊं?’’
नौकरानी बोली, ‘‘कोई जरूरी काम होगा.... तुम्ही चली जाओं।’’
दाल डालकर कमली ठाकुर के हवेली के फाटक पर पहुचकर तनिक ठिठकी। सिर का अंचल हाथ से ठीक किया और पैर साधकर आंगन तक गई। चारो तरफ संनाटा फैला था। किवाड़े आधे बन्द थे। चैखट पर लालटेन लटकी थी। कमली ने वही से पुकार लगाई, ‘‘अम्मा.... ’’
किसी ने जवाब नही दिया। कमली चारों ओर सिर घुमकर देखते हुए सोचने लगी, ‘‘कोई नही है क्या.... ’’ उसका कलेजा धक-धक करने लगा। तभी भीतर से किसी ने पुकारा, ‘‘कमली.... ’’
आवाज शेरसिंह की थी। कमली की जान में जैसे जान गई और वह आश्वस्त होकर बोली, ‘‘हां भैया.... ’’ कमली ने शांत स्वर में पूछा, ‘‘भैया, अम्मा कहां है? घर में कोई नही दिख रहा है।’’
शेरसिंह पास आते हुए बोला, ‘‘अम्मा हीरालाल के यहां टीके में गई है। आओ.... भीतर जाओ।’’
कमली ने लजा कर कहा, ‘‘चुल्हा जलता छोड़ आई हूं।’’
शेरसिंह उसकी बात अनसुनी करते हुए बोला, ‘‘आओ.... आओ .... ’’
‘‘फिर आऊंगी भैया.... ’’
अब तक शेरसिंह कमली के आगे आकर उसकी गोरी कलाई पकड़ ली। कमली की सम्पूर्ण देह में झन्न से हो गया। वह कुछ बोल सकी तो शेरसिंह का साहस बढ़ा और वह कमली की कलाई पकड़े हुए कांपते स्वर में बोला, ‘‘मुझे कब तक तड़पाओगी कमली....’’
पलक झपकते जैसे कमली का होश लौट आया और वह भयभीत स्वर में बोली, ‘‘भैया..... ’’
और जोर से झटका दिया कलाई छूट गई। फिर सम्पूर्ण साहस बटोरकर कांपते पैरों से वह दरवाजे की ओर बढ़ी तो शेर सिंह ने आगे बढ़कर कमली का रास्ता रोक लिया। कमली उसे अपने सामने इतने निकट देखकर थर-थर कांपने लगी। जीभ तालू से चिपट गई। कंठ सूख गया। जाने कैसे अजीब से स्वर में शेरसिंह बोला, ‘‘इतना मत सताओ.... मेरे दिल के टुकड़े-टुकड़े हो जाएगे.... ’’
कमली कठिनता से बोली, ‘‘भैया.... ’’
पर शेरसिंह ने उसका हाथ पकड़कर उसे अपने पास खीचने लगा। कमली के होश उड़ गए। शेरसिंह उसे पास खीचता गया सहसा बाहर के आंगन से किसी ने पुकारा, ‘‘अरे हरिया.... चैपाल पर रोशनी नही की तूने? कहां मर गया आभागे।’’
आवाज सुनते ही शेरसिंह ने कमली को छोड़ दिया और जाने किधर छिप गया। कमली ने इस घटना की चर्चा किसी ने नही की। कहती भी तो किससे? कहकर ठाकुर साहब के भतीजे शेरसिंह का क्या कर लेती। उल्टे कमली ही गांव भर बदनामी हो जाती। कमली के चुप रह जाने से शेरसिंह बहुत प्रसन्न था। अपनी प्यास बुझाने के लिए वह मौके की तलाश में रहने लगा जल्द ही उसे मौका मिल ही गया।
प्रतीक चित्र
उस दिन ठाकुर साहब के यहां रतजगा था। दरअसल बात यह थी कि तीन साल के बाद इस बार शेरसिंह ने हाईस्कूल पास किया था। इसी की खुशी मनायी जा रही थी। रतजगा में कमली को भी बुलाया गया था। वह जाना नही चाहती थी, पर जाना जरूरी था। शाम के समय जब वह निकलने लगी तो उसने रूककर अपने बापू से पूछा, ‘‘रात अधिक हो जाएगी अकेली मैं लौटूंगी कैसे?’’
बापू बोल, ‘‘क्यों.... ठाकुराइनी के पास सो जइयो, डर क्या है।’’
‘‘डर तो कुछ नही है.... ’’ आगे कमली कुछ नही कह सकी।
ठाकुर के हवेली का आंगन औरतों से भरा था। तड़ातड़ बज रहे ढोलक की तान पर मधुर गीत हो रहे थे। गानेवाली कही बाहर से आयी थी और राधाकृष्ण के बड़े सुन्दर-सुन्दर गीत सुना रही थी। कमली जैमंती के पास बैठी गीतों का आंनद ले रही थी। अचानक ठाकुराइनी ने कमली का कंधा हिलाकर जोर से कहा, ‘‘जरा उठो तो..... ’’
‘‘क्यों अम्मां, कोई काम है क्या?’’
‘‘बेटी, जरा छत पर जाकर दो-चार कंडे लाकर आग सुलगा दे। यह ढोलक बजाने वाली बुढि़या तंबाखू पीती है। सारी रात उसे आग की जरूरत पड़ेगी।’’
कमली कंडे लेकर अंधेरे जीने से नीचे उतर रही थी कि उससे कोई टकराया तो वह डरकर पूछ बैठी, ‘‘कौन.... कौन है यहां?’’
‘‘मैं हूं.... शेरसिहं.... ’’ कहते हुए शेरसिहं ने अंधेरे में कमली का हाथ पकड़ लिया तो उसके हाथ से कंडे गिर गये और वह चेतना शून्य हो गयी। शेरसिंह लालसा भरे स्वर में फुसफुसाया, ‘‘आज मेरा कलेजा ठंडा कर दो, कमली.... ’’
कमली पागलों की तरह चिल्ला उठी, ‘‘अम्मा.... अम्मा.... ’’
बाहर बज रहे ढोलक की शोर के चलते उसकी आवाज अंधेरे जीने में ही गूंजकर रह गयी। पलक झपकते ही शेरसिहं ने कमली को अपनी बांहों में कस लिया।
‘‘अरे छोड़ दे हरामी।’’
शेरसिंह ने उसे अपने कलेजे से सटा लिया।
‘‘अम्मा.... अम्मा.... अरे कोई है.... बचाओ..... बचाओ’’ कमली चिल्लाती रही पर किसी ने उसकी करूण पुकार नही सुनी तो कमली मछली की तरह छटपटाती हुई दीन स्वर में गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘छोड़ दो भैया, मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं.... भगवान के लिए छोड़ दो.... ’’
शेरसिंह पर कमली के रोने-गिड़गिड़ाने का कोई असर नही हुआ। उसने बुरी तरह छटपटाती कमली का मुंह दबाकर जमीन पर पटक दिया। इसके बाद उसने कमली को निर्वस्त्रा कर उसके दोनो उरोजो को बेदर्दी से मसलते हुए उस पर छा गया फिर उठा तभी जब उसके जिश्म का लावा फूटकर बाहर गया।
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